भारत मे खगोलनिरीक्षण - कुछ पदचिन्ह

भारत मे खगोलनिरीक्षण - कुछ पदचिन्ह
अरविंद परांजपे, आयुका
भारतवर्ष मे खगोलशास्त्र के अभ्यास की परंपरा बहुत प्राचीन काल से है.
ऐसा कहा जा सकता है की खगोलशास्त्र के अभ्यास की शुरवात नव पाषाण युग (9000 - 40000 ई.पू वर्ष) मे हुई थी. तब इसका संबंध कृषिकर्म से था. सूर्य का उदय किसी विशिष्ट तारे के उदय के तुरंत होना मौसम के आनेवाले बदलाव के संकेत के रूप मे पहचाना जाने लगा. कांस्य युग (4000 -1500 ई.पू) मे लिपी और अंक-संकेतों का प्रचलन बढा तो गणित का भी तेजी से विकास होने लगा जो न केवल खगोलशास्त्र के विकास के लिए वरन अन्य विषयोंके अभ्यास मे भी लाभदायी सिद्ध हो रहा था. ऋग्वेद मे ( 1500 ई.पू) हमे नक्षत्रो के नाम मिलते है तो यजुर्वेद और अथर्ववेद मे नक्षत्रों की बकायदा सूची हमे देखने को मिलती है. उस समय के खगोलशास्त्री सूर्य और चंद्रमा के निरीक्षणो के आधार पर कालमापन की प्रणाली जानने की और उसे एक स्थायी रूप देने की कोशिश कर रहे थे.
समय के चलते खगोलशास्त्र मे दो प्रमुख धाराए विकसित होने लगी एक तो वो जिसका संबंध खगोलीय निरीक्षणों से रहा था तो दूसरी ओर इन निरीक्षणो का अध्ययन कर उन निरीक्षणो से जुडे सिद्धांत की पहचान करना. अर्थात ये दोनो ही धाराए एक दूसरे की पूरक है और एक के बिना दूसरी अधुरी. हर सिद्धांत को निरीक्षणो की कसौटी पर खरा उतरना ही होगा. और यदि निरीक्षणो मे अचूकता नही होगी तो उन निरीक्षणो के आधार पर सटीक सिद्धांत खोज निकालना संभव नही. उदाहरण के तौर पर विश्व मे अनके स्थानो पर वहाँ के खगोलशास्त्रीयोंने पहचान लिया था की एक वर्ष तकरीबन ३६० दिन का है परंतू निरीक्षणो के आधार पर भारत मे ये संख्या ३६५.२५८६८ आंकी गयी यानी की ३६५ दिन ६ धंटे १२ मिनट और करीब ३० सेंकड जो की वास्तविक संख्या से केवल करीब २४ मिनट ज्यादा है.जो दीर्ध काल तक लिये गये अचूक निरीक्षणों के बिना संभव नही था. जिसका श्रेय आर्यभट को जाता है.
इस लेख मे हम भारतवर्ष देश मे हुए खगोलशास्त्र मे निरीक्षणों के संदर्भ मे हुए विकास के कुछ पदचिन्हो की चर्चा करेंगे. हमारे देश मे इस विषय का इतिहास इतना समृद्ध है की खगोलशास्त्र मे केवल निरीक्षणो के पहलू ही पर यदि हम विचार करना चाहें तो एक बडे ग्रंथ की रचना की जा सकती है. मै वाचकों से बस इतना ही निवेदन करना चाहता हूँ जिन उपलब्धीयों को मै पदचिन्ह से संबोधित कर रहा हूँ वे इसी क्षेत्र मे हुई अन्य उपलब्धीयोंसे ज्यादा महत्व पूर्ण है. बस इतना ही की इनके बारे मे लिखना मुझे ज्यादा अच्छा लगा.
हम शुरवात करेंग आर्यभटीय से. जैसे की नाम से ही विदित है आर्यभटीय के रचयीता आर्यभट थे, जिनका अभी हमने जिक्र किया था. आर्यभट ने आर्यभटीय ग्रंथ को ई.स. 499 मे प्रसिद्ध किया था. आर्यभटीय ग्रंथ मे केवल 121 श्लोकों के माध्यमसे उन्होने उस समय के गणित और खगोलशास्त्र की पूरी जानकारी प्रस्तुत की है. यह ग्रंथ कई कारणोंसे महत्व पूर्ण है. ‌ सर्वप्रथम तो यह एक ऐसा एकमात्र ग्रंथ हमे उपलब्ध है जो हमे उसय कालखंड मे हुए खगोलशास्त्र एवं गणित मे हूई प्रगती के बारे मे सखोलता से जानकारी देता है. इस ग्रंथ की रचना किसी इतिहासकार या किसी विज्ञान मे रूचि रखने वाले किसी विज्ञान प्रेमी द्वारा किया गया संकलन नही है. आर्यभट स्वयं एक वैज्ञानिक थे. कुछ एक दो श्लोकों को छोड दिया जाय तो आर्यभटीय के सभी श्लोकों मे दिये नियम आज भी उतने ही खरे उतरते है. ये बात इसलिये भी महत्वपूर्ण है की कई बार हम भावुक हो कर भारत मे हुये वैज्ञनिक प्रगती के बारे मे कुछ जादा ही बढा चढा कर चर्चा करते है.
आर्यभटीय के प्रकाशन के उपरांत ऐसा जान प्रतीत होता है की भारतीयों की खगोलीय निरीक्षणों मे रूचि कम तो नही होती गयी. आर्यभटीय ग्रंथ के प्रकाशन के 555वर्ष बाद आकाशमे एक नया तारा दिखाई दिया था. ई.स 4 जुलै 1054 को वृषभ तारकामंडल के एक तारे का विस्फोट हुआ था. इस विस्फोट (सूपनोव्हा) की तीव्रता इतनी थी आकाश मे जिस स्थान पर कोई तारा नही था वहाँ एक प्रखर रोशनी का तारा दिखाई दिया था. तकरीब २३ दिन ये तारा दिन मे आसमान मे सूर्य के रहते भी दिखाई देता था. धीरे धीरे इसकी रोशनी कम होती चली गयी पर फिर भी ये तारा करीब दो साल तक आसमान मे नजर आ रहा था. विश्व मे अनेक स्थानो पर इस घटना को देखे जाने का उल्लेख मिलता है. विशेषतः चीन के खगोलविदोने इस घटना का बारीकी से अध्ययन किया था. परंतु भारत मे इसका घटना का जिक्र हमे कहीं नही मिलाता है. क्युँ?
इसी संबंध मे हम एक और घटना की चर्चा करें. 18वी शताब्दी मे दिल्ली मे मोहम्मदशाह के दरबार मे हिंदू और मुस्लिम ज्योतिषीयो मे इस बात पर मतभेद था की किसी एक मोहीम के लिये अच्छा दिन कोन सा है. ये तो हम जानते ही है की सभी फलजोतिषियों की भविष्यवाणीयाँ एक समान नही होती परंतू यहाँ तो आसमान मे कौन सा ग्रह किस तारामंडल मे है इसी बात पर मत भिन्नता थी. स्वाभाविक इस त्रुटी का कारण आसमान मे ग्रहों की स्थिती की जानकारी का न होना ही था. अर्थात ये सभी पोथी पंडित ही रहे होंगे. इस वादविवाद के समय उपस्थित राजा सवाई जयसिंग इस बात को पहचान गये की यदि इस त्रृटी को दूर करना है तो सर्व प्रथम अचूक निरीक्षणों की आवष्यकता है.
उन्होने खगोलीय वेधशालाओं का निर्माण कर इस त्रुटी को दूर करने के का बीडा उठाया. सवई जयसिंग ने 1724 और 1730 की कालावधी मे दिल्ली, जयपूर, वराणसी, मथुरा और उज्जैन इन पांच स्थानो पर इन वेधशालाओं का निर्माण किया. जिन्हे हम जंतरमंतर के नाम से पहचानते हैं. कुछ अभ्यासकों का मानना है कि जंतरमंतर ये यंत्र-मंत्र का बोली भाषा मे अपभ्रंश है. यंत्र याने उपरण और मंत्र का उल्लेख गणितीय नियमों से है. जैसे की आर्यभटने गणितीय नियमों को श्लोके के माध्यम से प्रस्तुत किया था. जंतरमंतर की रचनाये समरकंद और उझबेकिस्तानमे उलुलबेग के यंत्रो पर आधारीत है. परंतू जयप्रकाश यंत्र की रचना खुद सवाई जसिंग की अपनी है. यह वेधशाला स्थपत्यकला की एक अधभुत रचना है और इसकी चर्चा सुनकर देशविदेश से इसे देखने और इसका अभ्यास करने वैज्ञानिक और पर्यटक यहाँ आते रहे हैं.
जब इस वेधशाला का निर्माण भारत मे हो रहा था वहीं युरोप मे दूरबीन को खोज होकर एक शतक हो गया था. कहते हैं की खुद सवाई जयसिंग के पास एक दूरबीन थी परंतु इस दूरबीन का उपयोग उन्होने खगोलवेधो के लिये किया हो इस बात के कोई संकेत हमे नही मिलते.
आधुनिक दूरबीनो का उपयोग भारत मे युरोपियन लोगोंके साथ शुरू हुआ. शुरवाती दिनों मे दूरबीनो का उपयोग सर्वेक्षणो के लिये होता था. पर खगोलीय निरीक्षणो के लिये बडे पैमाने पर उपयोग 1761 और 1769 मे हुए शुक्र के परागमन के समय हुआ था. इस परागमन के निरीक्षण के लिये बहुत संख्या मे फ्रांसिसी और इंग्रेजी खगोलविद भारत मे अपने साथ अनेक उपकरण और दूरबीनो को लेकर आये थे.
भारत की सर्वप्रथम वेधशाला चेन्नेई मे एगमुर मे विल्यम पेट्रीने 1786 मे स्थापित की. यह उनकी अपनी वेधशाला थी. दो वर्ष के उपरांत इस वेधशाला को चेन्नेई मे ही नुंगमबाकम नामक स्थान पर ले जाया गया. आज भी इस स्थान पर इस वेधशाला के कुछ अवशेष उपलब्ध है. इस वेधशाला मे काम कर रहे खगोलशास्त्रज्ञ और निरीक्षक थॉमस टेलरने 1843 मे ग्यारा हजार तारोंकी एक सूची प्रकाशित की थी जिसे बनाने के लिये उन्होने लगभग 13 साल तर अथक परिश्रम किया था. इस कार्य की अतराष्ट्रीय स्तर पर बहूत ही प्रशसा हुई थी.
धीरे धीर एक के बाद एक अनेक वेधशालाओं का निर्माण होने लगा. उस समय की सबसे बडी दूरबीन पुणे के इंजीनियरींग कॉलज मे थी. यह दूरबीन एक परावर्तित किस्म की थी जिसके आईने का व्यास 20 इंच है. और तकरीब 80 साल ये दूरबीन भारतकी सबसे बडी दूरबीन थी. इस दूरबीन का भारतमे आने का इतिहास बहुत ही रोमांचकारी है.
इस दूरबीन को भारत मे लाने का श्रेय केशवजी दादाभाई निगमवाला को जाता है. निगमवाला मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज के विद्यार्थी थे. उन्होने 1878 मे भौतिक आणि रसायनशास्त्रा मे प्रथम वर्गात एम. ए. की पदवी हासील की थी. उस समय विज्ञान विषय के लिये एम. ए. की पदवी ही प्रदान की जाती थी और आज की तरह उस समय परिक्षाओ मे उत्तिर्ण होना इतना आसान भी नही था. निगमवालाने तो दोन विषयात प्रथम वर्ग मे उत्तिर्ण हो कर इस पदवी को हासील किया था. उन्हे कुलपतीं का सुवर्ण पदक देकर संम्मानित किया गया था. निगमवालाने बाद मे 1882 वर्ष अपने ही कॉलेज मे लेक्चरर की नोकरी स्वीकारली थी. जो स्वयं मे एक सन्मानीय पद था.
उसी वर्ष भावनगरचे महाराजा तक्तसिंगजी एलफिन्स्टन कॉलेजला देखने आये थे. इस कॉलेजची प्रगती देख कर वे इतने प्रभावित हुए की उन्होने कॉलेजकी प्रयोगशाला के लिये पाच हजार रूपये दिये. मुंबई सरकारने भी इतनी ही निधी देने की पेशकश की. इस निधी से कॉलेज के लिये एक स्पेक्ट्रोस्कोप का खरीदना तय हुआ. जिसे खरीदने के लिये निगमवालाको इंग्लंड भेजा गया. प्रत्यक्ष मे निगमवालाने इन पैसों से दुरबीन खरीदी. जब इस दूरबीन को भारत मे लाया गया तब खगोलनिरीक्षणों के लिये मुंबई से पुणे वातावरण जादा अच्छा जान कर इसे पुणे भेजा गया. और बाद मे इस दूरबीन को तक्तसिंगजी वेधशाला के नाम से पहचाना जाने लगा. यह वेधशाला निगमवाला के देहांत तर उन्ही की देखरेख मे थी. बाद मे दुर्बिण ने बहूत प्रवास किया.
नुंगमबाकम, चेन्नेइ स्थित वेधशाला का स्थलांतर 1893 मे कोडइकनाल मे किया गया. और निगमवालायकी दूरबीन का भी. अब ये दूरबीन भावनगर दूरबीन के नाम से जानी जाने लगी. आगे चल कर 1971 मे कोडइकनाल वेधशाला का रूपांतर इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स मे हुआ.
भारत मे खगोलशास्त्रा के विकास मे तेजी आ रही थी जो स्वतंत्रा के बाद और तेजी से होने लगी. 1981 वर्ष मे कुछ संस्थाने ने एकत्र आ कर हिमालयमे अती उंचे स्थान पर एक बडी वेधशाला को स्थापन करने की चर्चा होने लगी तब प्रस्ताव आया की सर्व प्रथम लेह मे एक दूरबीन के जरीये खगोलीय निरीक्षण लिए जाय और ये सूनिश्चित करें की यह जगह वास्तम मे खगोलीय वेधशाला के निर्माण के लिये उपयुक्त है. इस कार्या के लिये भावनगर दूरबीन को लेह भेजा गया. लेह मे 1982 से 1986 के इस कालावधी मे इस दूरबीन का उपयोग करने का मुझे मोका मिला था. ये दूरबीन अब कावलूर स्थित वेधशाला मे है.
वापस चलते हैं. 20 वे शतक के शुरवाती दिनो मे. अब भारतात मे अनेक स्थानो पर छोटी बडी वेधशालाएं अस्तित्व मे आने लगी. इनमे से एक प्रमुख थी हैद्राबाद स्थित निझामीया वेधशाला. जिसकी स्थापना नवाब जफर जंगने 1909 मे की थी. दुर्बिणीच्या आईने का व्यास 1.2 मीटर था. अब इस वेधशाला का संचालन उस्मानीया विद्यापिठ के पास है. या भी अपने समय की भारत की सबसे बडी दूरबीन थी.
परंतू जंतरमंतरके रचनाकार राजा जयसिंह के बाद भारतात खगोलनिरीक्षणों को सही अर्था मे दिशा दी मनली कल्लत वैणू बापूने. वैणू बापू के पिताजी हैदराबाद की निझामीय वेधशाला मे शास्त्रज्ञ थे. सन 1952 मे वैणू बापू ने पीएच डी की पदवी संपादित की. जिसके लिये उन्होने अपना शोधकार्य हारवर्ड स्कूल ऑफ एस्ट्रोनॉमी मे किया था. इसके बाद उन्होने ओ. सी. विल्सन के साथ पालामोर वेधशाला मे काम किया. विल्सन आणि बाप्पूको अपने शोधकार्य के दौरान तारों के स्पेक्ट्रम मे कॅल्शियम की रेखा की मोटाई और उस तारे की दूरी मे संबंध नजर आया. उस समय की ये एक बडी खोज थी. आज इसे विल्सन-बाप्पू परिणाम के नाम से पहचाना जाता है. इस शोधकार्य के लिये बाप्पूको बहुत प्रसिद्धी मिली. यह वो समय था जब तारों के अंतर खोजने को खगोलशास्त्री बहूत जादा महत्त्वपूर्ण मानते थे. वैणू बाप्पू को बडी बडी वेधशालाओं मे काम करने के लिये खुले आमंत्रण मिल रहे थे. पर बाप्पूके मन मे कुछ अलग ही विचार थे. वे इन आमंत्रणो को अस्विकार करते हूये नैनीताल मे शुरू होने वाली नयी वेधशाला के संचालक के लिये इंटरव्यू देने पहूँच गये. उन्हे तो भारत मे खगोलविज्ञान का प्रसार करना था. जब इंटरव्यू के लिए और अपना परिचय दिया तो सभी आचंभित रह गये. बाद मे जब उन्हे संचालक का पदभार संभाला गया तो एक व्यक्ती ने उन्हे बताया की यदि यह मालूम होता की उस समय वैणू बाप्पु की उम्र केवल २६ साल है तो उन्हे इस इंटरव्यू के लिया ही नही जाता.
खैर इस पद पर कुछ साल काम करने के पश्चात बाप्पू कोडइकनाल चले आये. उस समय कोडइकनाल वेधशाला की परिस्थिती कुछ अच्छी नही थी. और बाप्पू ने इसे विश्व के मानचित्र पर दुबारा संन्मानीय स्थान देने का प्रयत्न शुरू किया. और साथ ही उन्होने बंगलोर मे भारतीय ताराभौतिकी संस्थेची स्थापना कर कोडइकनाल वेधशाला को इसमे समा लिया. और बंगलोर दक्षिण पूर्व करीब 180कि.मी. पर जवारी पर्वत श्रृखला मे कावलूर नामक एक छोटे से गांव के पास एक बडी मोठ्या वेधशाला की स्थापना की. आज यहाँ एशिया की सबसे बडी 90इंच व्यास के आईने की दूरबीन है. इस वेधशाला को बाप्पूके अकालीन मृत्यू के बाद वैणू बाप्पू वेधशाला नाम दिया गया.
तकरीबन 1980 साल मे खगोलीयवेधों के लिये एक नवीन उपकरण अस्तित्व मे आया. आज ये उपकरण हमारे हातों मे डिजीटल कॅमेरे रूप मे है. ये उपकरण है सी सी डी यानी चार्च कपल्ड डिव्हाईस. खगोलशास्त्रीय निरीक्षणांनो मे ये खोज एक बडा पडाव साबीत हुआ है. इसने खगोलनिरीक्षणों के संपूर्ण स्वरूप बदल दिया. आप आकाश के किसी एक भाग का चित्र लेते है और कुछ ही पल मे वो चित्र आपके कंप्यूटर पर दिखाई देता है. इतना ही नही इंटरनेट के जरीये ये चित्र आप किसी को भी भेज सकते है.
सी सी डी और इंटरनेट मिल कर खगोलनिरीक्षणों को एक नयी दिशा दे रहे थे. सी सी डी के उपयोग से खगोलीयीय निरीक्षणो की डाटा मे इतनी तेजी से वृद्दी होने लगी की किसी एक वैज्ञनिक को अपने डाटा का पूर्ण विश्लेशण संभव नही हो रहा था. तब वेधशालाए ऐसा निर्णय ले ने लगी की यदि कोई वैज्ञानिक अपने डाटा किसी एक समय काल मे विश्लेशण नही करता तो ये डाटा हर किसी के लिये खुला किया जा सकता है. जिसे इंटरनेट के द्वारा हासिल किया जा सकता है. इससे अब आभासी वेधशाला की संकल्पना ने जन्म लिया. आभासी वेधशाला मतलब खगोलीय निरीक्षणोंका संगणक पर किया गया एक ऐस संकलन जिसे कोई भी व्यक्ती केवल इंटरनेट के जरीये हासिल कर अपने शोध कार्य के लिये उपयोग कर सकता है.
इसी काल मे भारत मे विज्ञान मे शोधकार्य के लिये एक नया प्रयोग जन्म ले रहा था. अब तक का सर्व संशोधन अलग अलग संस्थानो मे होता रहा है. वैसे तो भारत के सभी विश्वविद्यालयों मे भी संशोधन कार्य होता है. पर वो संशोधन कार्य इसमे ज्यादा निधी की (उपकरणो आदी की खरीद की) आवश्यकता होती है ऐसे शोधकार्य के लिये निधी जुटाना अपने आप मे एक बडा कार्य हो जाता है.
विश्वविद्यालयों कार्यतर प्रोफेसरों के लिए एक ऐसी संस्था का निर्माण किया जाय की जहाँ एक छत के नीचे उस विषय मे संशोधन करने की सभी सुविधा उपलब्ध हो - कुछ ऐसा ही विचार प्रा. यशपाल, प्रा. जयंत नारलीकर जैसे विचारवंतों ने किया और अंतरविद्यापीठीय केंद्रे अस्तित्व मे आने लगी. इनमे एक प्रमुख आहे अंतर-विश्वविद्यालय केंद्र : खगोलविज्ञान और खगोलभौतिकी - Inter University Centre for Astronomy and Astrophysics – IUCAA या आयुका. यहाँ विद्यापीठ क्षेत्र मे कार्यरत खगोलअभ्यसाकों के लिये अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आधुनिकतम सुविधा उपलब्ध है. और आज ये भारतकी एक अग्रगण्य संस्था है. इस सस्था की अपनी २ मीटर व्यास के आईने की खगोलनिरीक्षणो के लिए आधुनिकतम उपकरणो से सजी वेधशाला है . जिसका उपयोग प्रामुख्य तौर पर विद्यापीठ क्षेत्रमे कार्यतर वैज्ञानिक करते है. भारतकी आभासी वेधशाला भी आयुका मे ही है.
आज भारत के खगोलशास्त्री अनेक नवीन प्रकल्पो को मूर्त रूप दे है. हाल ही मे गुरुत्त्वीय तरंगो का शोध लेने के लिये एक प्रकल्प को हरी झंडी दिखाई गयी है. इतना ही नही अब ये जमीन छोट अंतरिक्ष मे एक कृत्रिम उपग्रह छोडने की तयारी मे है. यह आपने आप मे एक अनोखा कृत्रिम उपग्रह होगा जो विद्युतचुंबकीय तरंगो के सभी तरंगो का अध्ययन करने की क्षमता रखेगा. ये संसार का अपने आप प्रकार का एक अनोखा उपग्रह होगा.
जैसे मैने पहले ही कहा था ये लेख अपने आप मे भारत मे हुई खगोलशास्त्रमे निरीक्षणो के बारे मे एक परिपूर्ण लेख तो नही है पर कुछ पद चिन्ह हमे जताते हैं की जैस के हमारे वैज्ञानिक कह रहे है - चक दे इंडिया

book review उत्क्रांती - लेखिका सुमती जोशी

उत्क्रांती - लेखिका सुमती जोशी

अरविंद परांजपे, आयुका, पुणे विद्यापीठ परिसर, पुणे ४११००७

सूर्यमालेच्या निर्मिती बद्दल शास्त्राज्ञांत एकमता ने सांगतात त्या प्रमाणे सूर्य आणि ग्रहांची निर्मिती एकाच वेळी झाली होती सुमारे ४.६ अब्ज वर्षांपूर्वी. आज आपल्या माहीती प्रमाणे पृथ्वी शिवाय इतरत्र सजीव आढळत नाहीत. मग विश्वात इतत्र सजीव नसतीलच का? खगोलशास्त्रज्ञांच्या मते परिस्थितीजन्य पुरावे आपल्याला हेच सांगतात की विश्वात इतरत्र सजीव असले पाहीजेत. पण अनेक जीवशास्त्रज्ञांच मत आहे की एखाद्या ग्रहावर सजीवांची निर्मिती होऊन त्यांची उत्क्रांनी होण एक फार अवघड आणि जटील प्रक्रिया आहे. पृथ्वीवर सजीव नेमके केव्हा आले असतील? त्याची उत्क्रांती कशी झाली असेल? जीवशास्त्रज्ञांचा अंदाज आहे की पृथ्वीवर एक पेशीय जिवाणू सुमारे ४.१ ते ३.५ अब्ज वर्षांपूर्वी अस्तित्वात आले असतील. सुमारे ५० कोटी वर्षांपूर्वी समुद्रात माशासारख्या सजीव आले असतील. मानवाचे पूर्वज माकड सुमारे ५ कोटी वर्षांपूर्वी वगैरे. हे आकडे वाचल्या वर आपल्याला खरच खूप काही कळलं का? कदाचित नाही. कारण इतक्या मोठ्या आकड्यांसी आपला संपर्क वरचे वर येत नसतो. पण हेच जर आपण या आकड्यानां वेगळ्या स्वरूपत बघितलं तर? समजा आपण पृथ्वीचा हा ४.६ वर्षांचा इतिहास आपण एका वर्षात मांडला तर? म्हणजे १ जानेवारी रोजी जेव्हा वेळ ० तास ० मिनीटे आणि ० सेकंद होती तेव्हा पृथ्वीचा (आणि अर्थातच सौरमालेचा) जन्म झाला. आणी आज आपण ३१ डिसेंबरच्या २३ वा. ५९ मि. आणि ५९.९९.... सें वर आहोत. तर या कालखंडात पृथ्वीर सजीवांची उत्क्रांती कशी झाली असेल. सुरवातीला पृथ्वी खूप तप्त होती. तिला थंड होण्यासच सुमारे दोन महीने लागले. एक पेशीय जिवाणू मार्च महीन्याच्या शेवटचा आठवडा ते एप्रिल महीन्याच्या पहिल्या आठवडा या कालावधीत आले असतील. त्या नंतर सुमारे सहा महीने पृथ्वीवर काहीही घडल नाही. नोव्हेबर महीन्याच्या सुमारे पहिल्या आठवड्यात एक पेशी सजीवांची म्हणजे शेवाळ यांची पाण्यात निर्मिती झाली. आणि असे करत आपली सिव्हीलायझेश फक्त ६ सेकंदा पूर्वीची आहे. तर या प्रमाणात पृथ्वीच्या उत्क्रांतीचा इतिहास हा फक्त दीड महीन्याचा आहे जो अत्यंत रोचक पद्धतीने मांडला आहे उतक्राती या पुस्तकात सुमती जोशी यांनी.

त्या आपल्या मनोगतात म्हणतात ते अगदी खरे आहे की या विषयावर मराठीत फारसे लेखन झालेले नाही आणि त्यानी ही उणीव भरून काढण्याचा चागला आणि उत्तम प्रयोग केला आहे. अजूनही अशा प्रकारचे लेखन आवश्यक आहे आणि या विषयातील तज्ञानी असे लेखन करून मराठी वाचकांच्या समोर हा विषय आपापल्या पद्धतीना मांडावा. पण सुमती जोशीनी केलेले हे योगदान मला खरच बहुमोलाचे वाटले. हे पुस्तक वाचताना मला भाषा आधुनमधून आलंकारिक वाटली खरी, कदाचित ती या साहित्याची गरच असेल, पण तेव्हडीच.

पुस्तक खरच वाचनीय आणि नंतर अभ्यास करण्यासारखच आहे. लेखिका एके ठिकाणी म्हणते की उत्क्रांनी हा विषयच असा आहे की, येथे 'चक्षुवैंसत्यम्' असे काही नसतेच. त्या मुळे प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष पुराव्याची साखळी जोडत तर कधी या साखळीचा हरवलेला आकडाशोधत उत्क्रांतीचा इतिहास उभा करण म्हणजे एखादी रहस्य कादंबरी लिहीण्यासारख आहे आणि त्याच उत्कंठेने तो वाचण्याचा आनंद हे पुस्तकातून मला मिळाला. आणि तरी ही उत्क्रांतीतील प्रत्येक प्रकरण आपल्यात परिपूर्ण आहे अस मला वाटलं.

प्रास्ताविक या पहिल्या प्रकरणात आपली ओळख या क्षेत्रात जे प्रमुख कार्य झाले, जे विचार मांडण्यात आले आणि त्यातील काहीं विचारांना झालेल्या प्रतिरोधाचा आढावा घेण्यात आला आहे. दुस-या प्रकरणात आपली ओळख चार्ल्स डार्विन आणि आल्फ्रेड वॅलॅसशी करून देण्यात येते. वॅलॅस हा डार्विन पेक्षा १४ वर्षानी लहान. दोघानी स्वतंत्र पणे संशोधन केले. दोघानी थॉमस माल्थस या अर्थतज्ञाच्या लोकसंख्यावाढीचा सिद्धांत वाचला होता. त्याना तो पटला होता. त्या मुळे असेल त्या दोघाच्या सिद्धांतात कमालीचे साम्य. फक्त डार्विनने आपले शोघकार्य प्रसिद्ध केलं नव्हतं. जर वॅलॅसने आपले कार्य प्रसिद्ध केले असते तर त्याला सेंद्रिय उत्क्रांतीच्या सिद्धांतचे श्रेय मिळाले असते. पण त्याला ते मान्य नव्हते. या सर्वांची चर्चा योग्य पद्धतीने, अजीबात मीठ मसाला न लावता, या प्रकारणात केली आहे. पण माल्थसच्या सिद्धांताची आपली प्रत्यक्ष ओळख मात्र नैसर्गिक निवड या ६ व्या प्रकरणात होते.

दुस-या प्रकरणा नंतर आपण एक प्रकारे अभ्यासाच्या दिशेने वळतो. अनुवंशिकता (म्हणजेच आई-वडिलांचे गुण मुलात येणे), विभेदन (आई-वडिलांशी साम्यअसले तरी मुलांच वेगळे असणं) आणि त्याचे रहस्य. ४थ्या प्रकरणा पासून उत्क्रांनीच्या मार्गावर नैसर्गिक निवडीचा नियम आणि तो सिद्धकरता येईल का आणि कृत्रिम निवड यावर चर्चा आपण वाचतो. जीवन संघर्षात टिकून राहण्यासाठी सजीवांनी आपल्यात केलेल्या बदलांची फार सुदर चर्चा अनुकूलन या प्रकरणेत लेखिकेने केली आहे.

सेंद्रिय उत्क्रांतीचे पुरावे हे १०वे प्रकरण मला खूप महत्वाचे वाटले. हे प्रकरण वाचल्यावर हे शास्त्र काय आहे आणि किती अवघड आहे आणि त्याच बरोबर हे किती रोमांचक आहे याची आपल्याला जाणीव होते. नुकतेच मुंबईतील दोन विद्यार्थ्याना विंचवाची एक नवीन प्रजाती सापडल्याची बातमी होती. या शोधाचं महत्त्व हे प्रकरण वाचल असल्या मुळे मला जास्त प्रकर्षाने जाणवलं.

डिझाइननॉईड घटक आणि डार्विनचे फिंच पक्षी ही दोन्ही प्रकरणे वाचताना डिसकव्हरी किंवा एनिमल प्लॅनेट चे एखादे एपिसोड वाचत असल्याचा भास होतो. उपसंहार हे सुमारे चार सव्वाचार पानाचे हे १३वे प्रकरणात एक स्वतंत्र लेखच आहे. शेवटी - पुस्तकाच्या शेवटीजी शब्द सूची आणि संदर्भ सूची देण्यात आली आहे ती नक्किच उपयोगी आहे पण या सूची विशेषतः शब्द सूची आणखीन मोठी असती त्याच बरोबर निर्देश सूची दिली असती तर फार चांगल झाल असतं अस मला वाटतं.

आज आपण, विद्यार्थी आणि विज्ञानाची आवड असलेली मोठी माणस सुद्धा डिसकव्हरी, अँनिमल प्लॅनेट वरील कार्यक्रम फार आवडीने बघतो. निसर्गाबद्दलचे कार्यक्रम बघताना हे पुस्तक वाचले असल्यास ते जास्त चांगले कळण्यात मदत होईल.

अशा प्रकारचे हे पहिलेच पुस्तक असल्या मुळे असेल कदाचित याला पानांच्या संख्येची मर्यादा असावी पण जसे राजहंसने जनसामान्यांचे आकाशाशी नाते जुळवले तसेच त्यांचे या पृथ्वीशी पण नाते सुमती जोशीयां यांच्या माध्यामातून जुळवून देण्याचा आवश्य प्रयत्न करावा.

A book on aryabhatiya by Mohan Apte

भारतीय खगोलशास्त्राचा आद्य ग्रंथ आर्यभटीय - शब्दार्थ, श्लोकार्थ, स्पष्टीकरण ---- लेखक मोहन आपटे

अरविंद परांजपे, आयुका, पुणे विद्यापीठ परिसर, पुणे ४११००७

भारतीय खगोलशास्त्राचा आद्य ग्रंथ आर्यभटीय - शब्दार्थ, श्लोकार्थ, स्पष्टीकरण हे पुस्तक लिहीताना प्राध्या,. मोहन आपटेयानी ओखमाच्या वस्त-याचा (Occam's razor) भरपूर आणि मनःपूर्वक उपयोग केलेला दिसतो. थोडक्यात आपल्या प्रबंधाला सोपा आणि सुटसुटीत ठेवण्या करता ज्याची गरज नाही असा भाग त्यानी (ओखमाझ रेझरने) छाटून टाकला आहे. त्या मुळे खरतर या पुस्तका बद्दल काही लिहायचे तर सरळ सरळ पुस्तकातील उतारेच द्यावे लागतील. (ओखमाचा विल्यम या १४ व्या शतकातील तर्कशास्त्री हा विचार मांडला होता की गरज नसताना त्याच त्यात बाबी लिहू नये)

आधीच गागर मे सागर असा हा मूळ आर्यभटीय ग्रंथ आणि त्याला संपूर्ण संमान देत आपटे यानी थोडक्यात या ग्रंथाचा सार आपल्या समोर ठेवला आहे. फक्त सुमारे अडीचशे पानाचे पुस्तक प्रकाशित करण हे कदाचित राजहंसच धाडसच म्हणाव लागेल कारण बहूसंख्य वाचक कदाचित पुस्तक उघडल्यावर त्यातील गणित आणि रेखा चित्र बघितल्यावर हे माझ्या आवक्या पलिकडचे आहे असे समजून ते खाली ठेवण्याची शक्यता आहे. पण ज्यांच भारतीय विज्ञानावर आणि खगोलशास्त्रावर प्रेम आहे त्यांचासाठी हे पुस्तक म्हणजे माजगावकर आणि आपटे यांची एक बहूमुल्य देणगी म्हणावी लागेल. कदाचित काही गणित अवघड वाटतील सुद्धा पण एकंदरीत ज्या कौशल्याने श्लोकांचे अर्थ दिले आहेत त्या मुळे ही गणिते आपल्याला कळायला सोपी झाली आहेत.

प्राध्यापक आपटे यांच्या लिखाणाचे आणि त्यातून हे आर्यभटीय चे शब्दार्थ, श्लोकार्थ, स्पष्टीकरण अशा पुस्तकाचे परिक्षण करावे ही माझी खरतर पात्रता नाही. पण जेव्हा पुस्तक माझ्या हातात पडले तेव्हा हे बाजारत येऊन अवघे दोन दिवस सुद्धा झाले नव्हते. ठाण्यातील एका कार्यक्रमाच्या वेळी आपटे यांनी हे पुस्तक आयुकाचे संचालक प्रा. अजीत केंभावी यांना दिले होते आणि ठाणे ते पुणे या प्रवासात मला हे पुस्तक बघायला वेळ मिळाले होते. आणि जेव्हा या पुस्तकाचे परिक्षण करण्याची संधी मला मिळाली तेव्हा मला कळलेला, मला आकलन झालेला भाग समोर ठेवत आहे. यातील जो भाग मला चुकीचा वाटला तो मलाच कळला नसावा ही माझी प्रामाणिक समजूत आहे.

खगोलशास्त्रावर प्रेम करणारा आणि त्यातून तो भारतीय असेल तर त्याला आर्यभाटाबद्दल माहीत नसेल अशी शक्यता कमीच पण खोलात जाऊन आर्यभाटाचे नेमक योगदान काय याची मात्र फार कल्पना नसते आणि माझ पण नेमक तेच झाल होत. पण या पुस्तकाच्या माध्यमातून मला आर्यभटाच्या कार्याला समजवून घेण्याची संधी मिळाली आहे.

या पुस्तकाचे दोन भाग आहेत. पहिला भाग म्हणजे या पुस्तकाचा, आर्यभटाचा आणि आर्यभटाच्या कार्याचा परिचय जो १३ व्या पानावर संपतो. पुढे २४५ पानांपर्यंत लेखाने आर्यभटीयायील ५० श्लोकांचा शब्दार्थ, श्लोकार्थ आणि स्पष्टीकरण आपल्या समोर ठेवले आहे. आणि शेवटच्या ६ पानात ५ परिशिष्टांच्या माध्यमातून त्यानी आर्यभाटीयातील गणितची पाश्चात्य आणि आधुनिक गणिताशी तुलना दिली आहे.

ज्याना आपल्या (भारतीय) संस्कृतीचा, आपल्या कडे झालेल्या शोधका-याचा अभिमान आहे त्यानी विशेषतः अशा लोकांनी ज्याना वाटतं की विश्वातील सर्व ज्ञान आपल्याच कडे होतं त्यानी तर हे पुस्तकातील पहिला भाग आवष्य वाचावा. या पहिल्या भागात लेखाने अवघ्या १३ पानात भारतीय विज्ञानाच्या प्रगतीचा इतिहास दिला आहे. या संदर्भात लेखकाच्या भाषेतच सांगायचे झाले तर " प्राचीन काळी आपल्याकडे यंव ज्ञान होते, त्यंव तंत्रज्ञान उपलब्ध होते अशा गप्पा मारण्यात आपण प्रवीण आहोत. ब-याच वेळा मूळ ग्रंथाचे परिशीलन न करतातच आपण बाता माहीत असतो" . तर ज्याचा कल आपल्याकडे असलेलं सर्व ज्ञान पश्चिमेतून आल आहे त्यांचे डोळे या पुस्तकाचा दुसरा भाग वाचून पूर्ण उघडलीत. या भागात त्यानी आर्यभटीयातील दशगीतिका तील १३, गणितपाद मधील ३३, कालक्रियापाद मधील २५, गोलपाद ५० अशा १२१ मूळ श्लोकांचा शब्दार्थ, श्लोकार्थ आणि स्पष्टीकरण दिले आहेत.

पुस्तकाची सुरवातीलाच आर्यभट्ट का आर्यभट या वादाच्या संदर्भात लेखक स्पष्टपणे सांगतो की आर्यभटीय या ग्रंथाचा कर्ता आर्यभट आहे. आणि मग त्यानी आर्यभटाचा काळ, निवासस्थान, त्याच शिक्षण, त्याच्या ग्रंथाबद्दल कोणी (भारतीय आणि पाश्चात्य) काय भाष्य केलं आहे हे थोडक्यात पण स्पष्ट सांगीतलं आहे. तसेच इ.स. ४९९ साली लिहीलेला आर्यभटाने अवघ्या २३व्या वर्षी लिहीलेल्या आर्यभटीय या ग्रंथा पूर्वी कुठला ही ग्रंथ उपलब्ध नाही आणि म्हणून आर्यभटीय हा ग्रंथ महत्वाचा ठरतो. तसेच या ग्रंथा मध्ये श्लोकांच्या माध्यमातून त्याने जी सूत्रे मांडली किंवा नियम सांगीतले ते कसे आले किंवा त्यानी ही गणिते कशी सोडवली याची आपल्याला काहीच माहिती नाही. त्या बद्दलच लिखाण उपलब्ध नाही.

प्रा. आपटे यांच्या लिखाणाच एक पैलु म्हणजे आर्यभटीय मधील जी बाब अचुक आहे ती तर त्यानी सांगीतलीच आहे पण काही ठिकाणी आर्यभट चुकला ही आहे. त्याच स्पष्टीकरण पण आपटे यानी दिले आहे. आणि जेव्हा त्याना अढळून आले की या श्लोकात संपूर्ण स्पष्टता नाही तर ते ही त्यानी नमूद केलेले आहे. जिथे त्याना शंका वाटली ती त्यानी स्पष्ट सांगीतली आहे. या श्लोकांबद्दल लिहीण्याचा मोह आवरता घेत फक्त दोन श्लोकांबद्दल सांगावेसे वाटते.

गोलपाद मधील ४७ वा श्लोकाच स्पष्टीकरण आपटेयानी दिल आहे की खग्रास सूर्यग्रहण काळात चंद्रबिंब सूर्याला झाकते परंतू सूर्यबिंबाचा सात अष्टमांश भाग झाकला गेला तरी सूर्यग्रहण लागल्याची जाणीव होत नाही. हे सत्य मी स्वतः ४ वेळा अनुभवल आहे.

आर्यभाटाच्या काळात ग्रहांच्या दीर्धवर्तुळाकृती भ्रमणाची कल्पना नव्हती. पृथ्वी हेच भगोलाचे केंद्र मानण्यात ये होते. पण ज्या मार्गाने ग्रह पृथ्वी भोवती भ्रमण करताना भासतात त्यांची केंद्र पृथ्वीकेंद्राशी जुळत नाहीत हे सत्य कालक्रियापाद मधील २१ श्लोकात आर्यभटाने नमुद केलं आहे.

प्रा. मोहन आपटे प्रांजळ पणे कबूल करतात की त्यांच संस्कृत भाषेच ज्ञान जुजबी आहे आणि त्यानी मुंबई विद्यापीठाच्या संस्कृत विभाग प्रमुख डॉ. उमा वैद्य याची मदत घेतली. आपले कर्तव्य म्हणून त्यानी इशारा दिला आहे की वाचकांना आपल्या मेंदूला ब-यापैकी ताण द्यावा लागेल. पण तो ताण छान व्यायाम करून दमल्यावर जी आनंद देणारी अनुभुती होते तसा आहे.

भारतात आधुनिक खगोलनिरीक्षणाचा प्रारंभ

सुमारे १७२४ ते १७३० या काळत जयपूरचे राजे सवाई जयसिंग (द्वितीय) यांनी दिल्ली, जयपूर, वाराणसी, मथुरा आणि उजैन अशा पाच ठिकाणी जंतर-मंतर या खगोलीय वेधशाळा उभारल्या ख-या पण त्यातील कुठल्याही यंत्रात भिंग असलेल्या दुर्बिणी मात्र नव्हत्या. ही एक आश्चर्याची बाब आहे. कारण खगोलनिरीक्षणासाठी दुर्बिणीच्या वापराला सुरवात होउन १०० वर्षापेक्षा जास्त काळ लोटला होता. दुसरं असं की जयसिंग यांनी सुरू केलेल्या खगोलनिरीक्षणाचा वारसाही कोणी उचलला नाही. असं सांगतात की, जयसिंग यांच्या नातवाने जयपूर येथील जंतर-मंतरच्या परिसराचा उपयोग दारूगोळा बनवण्याच्या कारखान्यासाठी केला आणि एका ४०० किलोच्या यंत्राचा नेमबाजी करण्यासाठी वापर केला.

आधुनिक दुर्बिणी वापरून खगोलनिरीक्षणाची प्रथा भारतात युरोपियन लोकांबरोबर आली. खरतर त्यानी दुर्बिणींचा वापर सर्वेक्षणासाठी केला होता. पहिले मोठे खगोलनिरीक्षण म्हणजे १७६१ आणि १७६९ साली झालेले शुक्र-सूर्य यांचे पिधान म्हणावे लागेल. या पिधानांची निरीक्षणे घेण्यासाठी फ्रेंच आणि इंग्रजांनी मोठ्या प्रमाणात वेध घेण्याची उपकरणे भारतात आणली.

भारतात पहिली वेधशाळा नेन्नेइत एगमूर या ठिकाणी विल्यम पेट्री यांनी १७६८ साली बांधली. ही त्यांची खासगी वेधशाळा होती. पुढे दोन वर्षांनंतर ती नुंगमबाकम (चेन्नेइतच) येथे हलवण्यात आली. आजही तिथे त्या काळीतील पुरावे शिल्लक आहेत. या वेधशाळेतील थॉमस टेलर यांनी १३ वर्षांच्या निरीणानंतर १८४३ साली अकरा हजार ता-यांची यादी प्रकाशित केली. त्यांच्या या कामाची खूप प्रशंसाही झाली.

पुढे एका मागून एक अशा वेधशाळा उभारण्यात येऊ लागल्या. पण आपण वळूया एका महत्त्वाच्या वेधशाळेकडे. सन १८८८ साली त्या काळतील सर्वात मोठी दुर्बिण पुण्यातील इजिनियरिंग कॉलेजमध्ये बसवण्यात आली. या दुर्बिणीच्या आरशाचा व्यास २० इंच होता (खरतर आहे). सुमारे ८० वर्षे भारतातील ही सर्वात मोठी दुर्बिण होती. या दुर्बिणीला भारतात आणण्याचं श्रेय केशवजी दादाभाई नगरवाला यांच आहे. ते एलफिन्स्टन कॉलेज, मुंबईचे विद्यार्थी होते व १८७८ ते भौतिक आणि रसायनशास्त्रात प्रथम वर्गात एम. ए. झाले होते. त्यांना मुंबईच्या कुलपतींच सुवर्ण पदक देण्यात आलं. नंतर ते १८८२ साली परत आपल्याच कॉलेजमध्ये लेक्चरर म्हणून रूजू झाले. त्याच वर्षी भावनगरचे महाराजा तक्तसिंगजी यांनी एलफिंन्स्टन कॉलेजला भेट दिली व प्रयोगशाळेसाठी पाच हजार रूपयांची देणगी पण दिली. त्यात मुंबई सरकारनी तेवढीच भर घातली. या देणगीचा वापर निगमवाला यांनी इंग्लंडहून २० इंच व्यासाची दुर्बिण आणण्यासाठी केला. पुण्याचे हवामान खगोलनिरीक्षणासाठी मुंबईपेक्षा जास्त चांगलं म्हणून ही दुर्बिण पुण्यात बसवण्यात आली. वेधशाळेला तक्तसिंगजी वेधशाळा नाव देण्यात आले.

नगरवाला यांच्या रिटायरमेंटबरोबरच पुण्यातली ही वेधशाळाही बंद पडली आणि या दुर्बिणीला (आता हिला भावनगर दुर्बिण म्हणून ओळखतात) बराच प्रवास झाला. चेन्नेई येथील वेधशाळेचे स्थालांतर कोडइकनालला करण्यात आले. भावनगर दुर्बिण तिथेच हलवण्यात आली. पुढे १९७१ साली कोडइकनाल वेधशाळेचे रूपांतर इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजक्स झाले. लद्दाखमध्ये जेव्हा मोठी दुर्बिण बांधण्यासाठी सर्वेक्षण करण्याचे ठरवले तेव्हा ही दुर्बिण लेहला पाठवण्यात आली होती. लेहमध्ये दोन वर्षे (१९८२ - १९८४ ) ही दुर्बिण वापरण्याची संधी मला मिळाली होती. या दुर्बिणीचे मुख्य भाग अजूनही कसेच आहेत सध्या ही दुर्बिण कावलूर वेधशाळेत आहे.

लोकसत्ता - जिज्ञासा, ३-१२-२००१