भारत मे खगोलनिरीक्षण - कुछ पदचिन्ह
अरविंद परांजपे, आयुका
भारतवर्ष मे खगोलशास्त्र के अभ्यास की परंपरा बहुत प्राचीन काल से है.
ऐसा कहा जा सकता है की खगोलशास्त्र के अभ्यास की शुरवात नव पाषाण युग (9000 - 40000 ई.पू वर्ष) मे हुई थी. तब इसका संबंध कृषिकर्म से था. सूर्य का उदय किसी विशिष्ट तारे के उदय के तुरंत होना मौसम के आनेवाले बदलाव के संकेत के रूप मे पहचाना जाने लगा. कांस्य युग (4000 -1500 ई.पू) मे लिपी और अंक-संकेतों का प्रचलन बढा तो गणित का भी तेजी से विकास होने लगा जो न केवल खगोलशास्त्र के विकास के लिए वरन अन्य विषयोंके अभ्यास मे भी लाभदायी सिद्ध हो रहा था. ऋग्वेद मे ( 1500 ई.पू) हमे नक्षत्रो के नाम मिलते है तो यजुर्वेद और अथर्ववेद मे नक्षत्रों की बकायदा सूची हमे देखने को मिलती है. उस समय के खगोलशास्त्री सूर्य और चंद्रमा के निरीक्षणो के आधार पर कालमापन की प्रणाली जानने की और उसे एक स्थायी रूप देने की कोशिश कर रहे थे.
समय के चलते खगोलशास्त्र मे दो प्रमुख धाराए विकसित होने लगी एक तो वो जिसका संबंध खगोलीय निरीक्षणों से रहा था तो दूसरी ओर इन निरीक्षणो का अध्ययन कर उन निरीक्षणो से जुडे सिद्धांत की पहचान करना. अर्थात ये दोनो ही धाराए एक दूसरे की पूरक है और एक के बिना दूसरी अधुरी. हर सिद्धांत को निरीक्षणो की कसौटी पर खरा उतरना ही होगा. और यदि निरीक्षणो मे अचूकता नही होगी तो उन निरीक्षणो के आधार पर सटीक सिद्धांत खोज निकालना संभव नही. उदाहरण के तौर पर विश्व मे अनके स्थानो पर वहाँ के खगोलशास्त्रीयोंने पहचान लिया था की एक वर्ष तकरीबन ३६० दिन का है परंतू निरीक्षणो के आधार पर भारत मे ये संख्या ३६५.२५८६८ आंकी गयी यानी की ३६५ दिन ६ धंटे १२ मिनट और करीब ३० सेंकड जो की वास्तविक संख्या से केवल करीब २४ मिनट ज्यादा है.जो दीर्ध काल तक लिये गये अचूक निरीक्षणों के बिना संभव नही था. जिसका श्रेय आर्यभट को जाता है.
इस लेख मे हम भारतवर्ष देश मे हुए खगोलशास्त्र मे निरीक्षणों के संदर्भ मे हुए विकास के कुछ पदचिन्हो की चर्चा करेंगे. हमारे देश मे इस विषय का इतिहास इतना समृद्ध है की खगोलशास्त्र मे केवल निरीक्षणो के पहलू ही पर यदि हम विचार करना चाहें तो एक बडे ग्रंथ की रचना की जा सकती है. मै वाचकों से बस इतना ही निवेदन करना चाहता हूँ जिन उपलब्धीयों को मै पदचिन्ह से संबोधित कर रहा हूँ वे इसी क्षेत्र मे हुई अन्य उपलब्धीयोंसे ज्यादा महत्व पूर्ण है. बस इतना ही की इनके बारे मे लिखना मुझे ज्यादा अच्छा लगा.
हम शुरवात करेंग आर्यभटीय से. जैसे की नाम से ही विदित है आर्यभटीय के रचयीता आर्यभट थे, जिनका अभी हमने जिक्र किया था. आर्यभट ने आर्यभटीय ग्रंथ को ई.स. 499 मे प्रसिद्ध किया था. आर्यभटीय ग्रंथ मे केवल 121 श्लोकों के माध्यमसे उन्होने उस समय के गणित और खगोलशास्त्र की पूरी जानकारी प्रस्तुत की है. यह ग्रंथ कई कारणोंसे महत्व पूर्ण है. सर्वप्रथम तो यह एक ऐसा एकमात्र ग्रंथ हमे उपलब्ध है जो हमे उसय कालखंड मे हुए खगोलशास्त्र एवं गणित मे हूई प्रगती के बारे मे सखोलता से जानकारी देता है. इस ग्रंथ की रचना किसी इतिहासकार या किसी विज्ञान मे रूचि रखने वाले किसी विज्ञान प्रेमी द्वारा किया गया संकलन नही है. आर्यभट स्वयं एक वैज्ञानिक थे. कुछ एक दो श्लोकों को छोड दिया जाय तो आर्यभटीय के सभी श्लोकों मे दिये नियम आज भी उतने ही खरे उतरते है. ये बात इसलिये भी महत्वपूर्ण है की कई बार हम भावुक हो कर भारत मे हुये वैज्ञनिक प्रगती के बारे मे कुछ जादा ही बढा चढा कर चर्चा करते है.
आर्यभटीय के प्रकाशन के उपरांत ऐसा जान प्रतीत होता है की भारतीयों की खगोलीय निरीक्षणों मे रूचि कम तो नही होती गयी. आर्यभटीय ग्रंथ के प्रकाशन के 555वर्ष बाद आकाशमे एक नया तारा दिखाई दिया था. ई.स 4 जुलै 1054 को वृषभ तारकामंडल के एक तारे का विस्फोट हुआ था. इस विस्फोट (सूपनोव्हा) की तीव्रता इतनी थी आकाश मे जिस स्थान पर कोई तारा नही था वहाँ एक प्रखर रोशनी का तारा दिखाई दिया था. तकरीब २३ दिन ये तारा दिन मे आसमान मे सूर्य के रहते भी दिखाई देता था. धीरे धीरे इसकी रोशनी कम होती चली गयी पर फिर भी ये तारा करीब दो साल तक आसमान मे नजर आ रहा था. विश्व मे अनेक स्थानो पर इस घटना को देखे जाने का उल्लेख मिलता है. विशेषतः चीन के खगोलविदोने इस घटना का बारीकी से अध्ययन किया था. परंतु भारत मे इसका घटना का जिक्र हमे कहीं नही मिलाता है. क्युँ?
इसी संबंध मे हम एक और घटना की चर्चा करें. 18वी शताब्दी मे दिल्ली मे मोहम्मदशाह के दरबार मे हिंदू और मुस्लिम ज्योतिषीयो मे इस बात पर मतभेद था की किसी एक मोहीम के लिये अच्छा दिन कोन सा है. ये तो हम जानते ही है की सभी फलजोतिषियों की भविष्यवाणीयाँ एक समान नही होती परंतू यहाँ तो आसमान मे कौन सा ग्रह किस तारामंडल मे है इसी बात पर मत भिन्नता थी. स्वाभाविक इस त्रुटी का कारण आसमान मे ग्रहों की स्थिती की जानकारी का न होना ही था. अर्थात ये सभी पोथी पंडित ही रहे होंगे. इस वादविवाद के समय उपस्थित राजा सवाई जयसिंग इस बात को पहचान गये की यदि इस त्रृटी को दूर करना है तो सर्व प्रथम अचूक निरीक्षणों की आवष्यकता है.
उन्होने खगोलीय वेधशालाओं का निर्माण कर इस त्रुटी को दूर करने के का बीडा उठाया. सवई जयसिंग ने 1724 और 1730 की कालावधी मे दिल्ली, जयपूर, वराणसी, मथुरा और उज्जैन इन पांच स्थानो पर इन वेधशालाओं का निर्माण किया. जिन्हे हम जंतरमंतर के नाम से पहचानते हैं. कुछ अभ्यासकों का मानना है कि जंतरमंतर ये यंत्र-मंत्र का बोली भाषा मे अपभ्रंश है. यंत्र याने उपरण और मंत्र का उल्लेख गणितीय नियमों से है. जैसे की आर्यभटने गणितीय नियमों को श्लोके के माध्यम से प्रस्तुत किया था. जंतरमंतर की रचनाये समरकंद और उझबेकिस्तानमे उलुलबेग के यंत्रो पर आधारीत है. परंतू जयप्रकाश यंत्र की रचना खुद सवाई जसिंग की अपनी है. यह वेधशाला स्थपत्यकला की एक अधभुत रचना है और इसकी चर्चा सुनकर देशविदेश से इसे देखने और इसका अभ्यास करने वैज्ञानिक और पर्यटक यहाँ आते रहे हैं.
जब इस वेधशाला का निर्माण भारत मे हो रहा था वहीं युरोप मे दूरबीन को खोज होकर एक शतक हो गया था. कहते हैं की खुद सवाई जयसिंग के पास एक दूरबीन थी परंतु इस दूरबीन का उपयोग उन्होने खगोलवेधो के लिये किया हो इस बात के कोई संकेत हमे नही मिलते.
आधुनिक दूरबीनो का उपयोग भारत मे युरोपियन लोगोंके साथ शुरू हुआ. शुरवाती दिनों मे दूरबीनो का उपयोग सर्वेक्षणो के लिये होता था. पर खगोलीय निरीक्षणो के लिये बडे पैमाने पर उपयोग 1761 और 1769 मे हुए शुक्र के परागमन के समय हुआ था. इस परागमन के निरीक्षण के लिये बहुत संख्या मे फ्रांसिसी और इंग्रेजी खगोलविद भारत मे अपने साथ अनेक उपकरण और दूरबीनो को लेकर आये थे.
भारत की सर्वप्रथम वेधशाला चेन्नेई मे एगमुर मे विल्यम पेट्रीने 1786 मे स्थापित की. यह उनकी अपनी वेधशाला थी. दो वर्ष के उपरांत इस वेधशाला को चेन्नेई मे ही नुंगमबाकम नामक स्थान पर ले जाया गया. आज भी इस स्थान पर इस वेधशाला के कुछ अवशेष उपलब्ध है. इस वेधशाला मे काम कर रहे खगोलशास्त्रज्ञ और निरीक्षक थॉमस टेलरने 1843 मे ग्यारा हजार तारोंकी एक सूची प्रकाशित की थी जिसे बनाने के लिये उन्होने लगभग 13 साल तर अथक परिश्रम किया था. इस कार्य की अतराष्ट्रीय स्तर पर बहूत ही प्रशसा हुई थी.
धीरे धीर एक के बाद एक अनेक वेधशालाओं का निर्माण होने लगा. उस समय की सबसे बडी दूरबीन पुणे के इंजीनियरींग कॉलज मे थी. यह दूरबीन एक परावर्तित किस्म की थी जिसके आईने का व्यास 20 इंच है. और तकरीब 80 साल ये दूरबीन भारतकी सबसे बडी दूरबीन थी. इस दूरबीन का भारतमे आने का इतिहास बहुत ही रोमांचकारी है.
इस दूरबीन को भारत मे लाने का श्रेय केशवजी दादाभाई निगमवाला को जाता है. निगमवाला मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज के विद्यार्थी थे. उन्होने 1878 मे भौतिक आणि रसायनशास्त्रा मे प्रथम वर्गात एम. ए. की पदवी हासील की थी. उस समय विज्ञान विषय के लिये एम. ए. की पदवी ही प्रदान की जाती थी और आज की तरह उस समय परिक्षाओ मे उत्तिर्ण होना इतना आसान भी नही था. निगमवालाने तो दोन विषयात प्रथम वर्ग मे उत्तिर्ण हो कर इस पदवी को हासील किया था. उन्हे कुलपतीं का सुवर्ण पदक देकर संम्मानित किया गया था. निगमवालाने बाद मे 1882 वर्ष अपने ही कॉलेज मे लेक्चरर की नोकरी स्वीकारली थी. जो स्वयं मे एक सन्मानीय पद था.
उसी वर्ष भावनगरचे महाराजा तक्तसिंगजी एलफिन्स्टन कॉलेजला देखने आये थे. इस कॉलेजची प्रगती देख कर वे इतने प्रभावित हुए की उन्होने कॉलेजकी प्रयोगशाला के लिये पाच हजार रूपये दिये. मुंबई सरकारने भी इतनी ही निधी देने की पेशकश की. इस निधी से कॉलेज के लिये एक स्पेक्ट्रोस्कोप का खरीदना तय हुआ. जिसे खरीदने के लिये निगमवालाको इंग्लंड भेजा गया. प्रत्यक्ष मे निगमवालाने इन पैसों से दुरबीन खरीदी. जब इस दूरबीन को भारत मे लाया गया तब खगोलनिरीक्षणों के लिये मुंबई से पुणे वातावरण जादा अच्छा जान कर इसे पुणे भेजा गया. और बाद मे इस दूरबीन को तक्तसिंगजी वेधशाला के नाम से पहचाना जाने लगा. यह वेधशाला निगमवाला के देहांत तर उन्ही की देखरेख मे थी. बाद मे दुर्बिण ने बहूत प्रवास किया.
नुंगमबाकम, चेन्नेइ स्थित वेधशाला का स्थलांतर 1893 मे कोडइकनाल मे किया गया. और निगमवालायकी दूरबीन का भी. अब ये दूरबीन भावनगर दूरबीन के नाम से जानी जाने लगी. आगे चल कर 1971 मे कोडइकनाल वेधशाला का रूपांतर इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स मे हुआ.
भारत मे खगोलशास्त्रा के विकास मे तेजी आ रही थी जो स्वतंत्रा के बाद और तेजी से होने लगी. 1981 वर्ष मे कुछ संस्थाने ने एकत्र आ कर हिमालयमे अती उंचे स्थान पर एक बडी वेधशाला को स्थापन करने की चर्चा होने लगी तब प्रस्ताव आया की सर्व प्रथम लेह मे एक दूरबीन के जरीये खगोलीय निरीक्षण लिए जाय और ये सूनिश्चित करें की यह जगह वास्तम मे खगोलीय वेधशाला के निर्माण के लिये उपयुक्त है. इस कार्या के लिये भावनगर दूरबीन को लेह भेजा गया. लेह मे 1982 से 1986 के इस कालावधी मे इस दूरबीन का उपयोग करने का मुझे मोका मिला था. ये दूरबीन अब कावलूर स्थित वेधशाला मे है.
वापस चलते हैं. 20 वे शतक के शुरवाती दिनो मे. अब भारतात मे अनेक स्थानो पर छोटी बडी वेधशालाएं अस्तित्व मे आने लगी. इनमे से एक प्रमुख थी हैद्राबाद स्थित निझामीया वेधशाला. जिसकी स्थापना नवाब जफर जंगने 1909 मे की थी. दुर्बिणीच्या आईने का व्यास 1.2 मीटर था. अब इस वेधशाला का संचालन उस्मानीया विद्यापिठ के पास है. या भी अपने समय की भारत की सबसे बडी दूरबीन थी.
परंतू जंतरमंतरके रचनाकार राजा जयसिंह के बाद भारतात खगोलनिरीक्षणों को सही अर्था मे दिशा दी मनली कल्लत वैणू बापूने. वैणू बापू के पिताजी हैदराबाद की निझामीय वेधशाला मे शास्त्रज्ञ थे. सन 1952 मे वैणू बापू ने पीएच डी की पदवी संपादित की. जिसके लिये उन्होने अपना शोधकार्य हारवर्ड स्कूल ऑफ एस्ट्रोनॉमी मे किया था. इसके बाद उन्होने ओ. सी. विल्सन के साथ पालामोर वेधशाला मे काम किया. विल्सन आणि बाप्पूको अपने शोधकार्य के दौरान तारों के स्पेक्ट्रम मे कॅल्शियम की रेखा की मोटाई और उस तारे की दूरी मे संबंध नजर आया. उस समय की ये एक बडी खोज थी. आज इसे विल्सन-बाप्पू परिणाम के नाम से पहचाना जाता है. इस शोधकार्य के लिये बाप्पूको बहुत प्रसिद्धी मिली. यह वो समय था जब तारों के अंतर खोजने को खगोलशास्त्री बहूत जादा महत्त्वपूर्ण मानते थे. वैणू बाप्पू को बडी बडी वेधशालाओं मे काम करने के लिये खुले आमंत्रण मिल रहे थे. पर बाप्पूके मन मे कुछ अलग ही विचार थे. वे इन आमंत्रणो को अस्विकार करते हूये नैनीताल मे शुरू होने वाली नयी वेधशाला के संचालक के लिये इंटरव्यू देने पहूँच गये. उन्हे तो भारत मे खगोलविज्ञान का प्रसार करना था. जब इंटरव्यू के लिए और अपना परिचय दिया तो सभी आचंभित रह गये. बाद मे जब उन्हे संचालक का पदभार संभाला गया तो एक व्यक्ती ने उन्हे बताया की यदि यह मालूम होता की उस समय वैणू बाप्पु की उम्र केवल २६ साल है तो उन्हे इस इंटरव्यू के लिया ही नही जाता.
खैर इस पद पर कुछ साल काम करने के पश्चात बाप्पू कोडइकनाल चले आये. उस समय कोडइकनाल वेधशाला की परिस्थिती कुछ अच्छी नही थी. और बाप्पू ने इसे विश्व के मानचित्र पर दुबारा संन्मानीय स्थान देने का प्रयत्न शुरू किया. और साथ ही उन्होने बंगलोर मे भारतीय ताराभौतिकी संस्थेची स्थापना कर कोडइकनाल वेधशाला को इसमे समा लिया. और बंगलोर दक्षिण पूर्व करीब 180कि.मी. पर जवारी पर्वत श्रृखला मे कावलूर नामक एक छोटे से गांव के पास एक बडी मोठ्या वेधशाला की स्थापना की. आज यहाँ एशिया की सबसे बडी 90इंच व्यास के आईने की दूरबीन है. इस वेधशाला को बाप्पूके अकालीन मृत्यू के बाद वैणू बाप्पू वेधशाला नाम दिया गया.
तकरीबन 1980 साल मे खगोलीयवेधों के लिये एक नवीन उपकरण अस्तित्व मे आया. आज ये उपकरण हमारे हातों मे डिजीटल कॅमेरे रूप मे है. ये उपकरण है सी सी डी यानी चार्च कपल्ड डिव्हाईस. खगोलशास्त्रीय निरीक्षणांनो मे ये खोज एक बडा पडाव साबीत हुआ है. इसने खगोलनिरीक्षणों के संपूर्ण स्वरूप बदल दिया. आप आकाश के किसी एक भाग का चित्र लेते है और कुछ ही पल मे वो चित्र आपके कंप्यूटर पर दिखाई देता है. इतना ही नही इंटरनेट के जरीये ये चित्र आप किसी को भी भेज सकते है.
सी सी डी और इंटरनेट मिल कर खगोलनिरीक्षणों को एक नयी दिशा दे रहे थे. सी सी डी के उपयोग से खगोलीयीय निरीक्षणो की डाटा मे इतनी तेजी से वृद्दी होने लगी की किसी एक वैज्ञनिक को अपने डाटा का पूर्ण विश्लेशण संभव नही हो रहा था. तब वेधशालाए ऐसा निर्णय ले ने लगी की यदि कोई वैज्ञानिक अपने डाटा किसी एक समय काल मे विश्लेशण नही करता तो ये डाटा हर किसी के लिये खुला किया जा सकता है. जिसे इंटरनेट के द्वारा हासिल किया जा सकता है. इससे अब आभासी वेधशाला की संकल्पना ने जन्म लिया. आभासी वेधशाला मतलब खगोलीय निरीक्षणोंका संगणक पर किया गया एक ऐस संकलन जिसे कोई भी व्यक्ती केवल इंटरनेट के जरीये हासिल कर अपने शोध कार्य के लिये उपयोग कर सकता है.
इसी काल मे भारत मे विज्ञान मे शोधकार्य के लिये एक नया प्रयोग जन्म ले रहा था. अब तक का सर्व संशोधन अलग अलग संस्थानो मे होता रहा है. वैसे तो भारत के सभी विश्वविद्यालयों मे भी संशोधन कार्य होता है. पर वो संशोधन कार्य इसमे ज्यादा निधी की (उपकरणो आदी की खरीद की) आवश्यकता होती है ऐसे शोधकार्य के लिये निधी जुटाना अपने आप मे एक बडा कार्य हो जाता है.
विश्वविद्यालयों कार्यतर प्रोफेसरों के लिए एक ऐसी संस्था का निर्माण किया जाय की जहाँ एक छत के नीचे उस विषय मे संशोधन करने की सभी सुविधा उपलब्ध हो - कुछ ऐसा ही विचार प्रा. यशपाल, प्रा. जयंत नारलीकर जैसे विचारवंतों ने किया और अंतरविद्यापीठीय केंद्रे अस्तित्व मे आने लगी. इनमे एक प्रमुख आहे अंतर-विश्वविद्यालय केंद्र : खगोलविज्ञान और खगोलभौतिकी - Inter University Centre for Astronomy and Astrophysics – IUCAA या आयुका. यहाँ विद्यापीठ क्षेत्र मे कार्यरत खगोलअभ्यसाकों के लिये अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आधुनिकतम सुविधा उपलब्ध है. और आज ये भारतकी एक अग्रगण्य संस्था है. इस सस्था की अपनी २ मीटर व्यास के आईने की खगोलनिरीक्षणो के लिए आधुनिकतम उपकरणो से सजी वेधशाला है . जिसका उपयोग प्रामुख्य तौर पर विद्यापीठ क्षेत्रमे कार्यतर वैज्ञानिक करते है. भारतकी आभासी वेधशाला भी आयुका मे ही है.
आज भारत के खगोलशास्त्री अनेक नवीन प्रकल्पो को मूर्त रूप दे है. हाल ही मे गुरुत्त्वीय तरंगो का शोध लेने के लिये एक प्रकल्प को हरी झंडी दिखाई गयी है. इतना ही नही अब ये जमीन छोट अंतरिक्ष मे एक कृत्रिम उपग्रह छोडने की तयारी मे है. यह आपने आप मे एक अनोखा कृत्रिम उपग्रह होगा जो विद्युतचुंबकीय तरंगो के सभी तरंगो का अध्ययन करने की क्षमता रखेगा. ये संसार का अपने आप प्रकार का एक अनोखा उपग्रह होगा.
जैसे मैने पहले ही कहा था ये लेख अपने आप मे भारत मे हुई खगोलशास्त्रमे निरीक्षणो के बारे मे एक परिपूर्ण लेख तो नही है पर कुछ पद चिन्ह हमे जताते हैं की जैस के हमारे वैज्ञानिक कह रहे है - चक दे इंडिया